Sunday, May 10, 2020

मुक्तक: जिधर देखो उधर चर्चा .........

मुक्तक
जिधर देखो उधर चर्चा, करोना की ही घर- घर में,
बहुत आतंक फैलाया, इसी कोविड ने घर-घर में,
मेरे आँगन में आ करके, दो पंछी बात करते हैं,
जो हमको कैद करते थे, वो खुद ही कैद हैं घर में।

---- मुकेश पाण्डेय "जिगर"

Sunday, May 3, 2020

मुक्तक- छुपाता था जिसे अब तक .......




छुपाता था जिसे अब तक, खुले वो राज करता है,

जिसे मुझसे थी नफरत कल, वो मुझपर आज मरता है,

कभी मगरूर होकर जो, मेरा परिहास करता था,

सुना है आजकल मेरी, वफा पर नाज करता है।

मुक्तक - हरि भक्त पर कोई जब.......



हरि भक्त पर कोई गर, संकट पड़ेगा भारी,

खोलेंगे सारे रस्ते, विपदा हरेंगे सारी,

पैदा हुआ जो रावण, या कंस जैसा पापी,

आएंगे फिर से रघुवर, आएंगे मुरलीधारी।
               
                            @ मुकेश पाण्डेय "जिगर"

मुक्तक- तुझे पाने की ख्वाइश में......



तुझे पाने की ख़्वाहिश में, जमाना छूट जाता है,

मेरे दिल का नगर भी तू, नजर से लूट जाता है,

जिया है मैंने ये जीवन, तेरा ही आइना बनके,

तुझे ना देख पाये तो, ये दर्पण टूट जाता है।

मुक्तक - पुकारे द्रौपदी दिल से............




पुकारे द्रोपदी दिलसे, बचाने श्याम आते हैं,

कभी अवतार लेकर वो, अयोध्या धाम आते हैं

करो तुम लाख आडंबर, मगर दर्शन नही देते

अगर भक्ती हो शबरी सी, कुटी में राम आते हैं।

मुक्तक- हमें जिसने रुलाया था.....



हमें जिसने रुलाया था, वही आँसू बहाते हैं,

हमारी याद में निश-दिन, वही दीपक जलाते हैं।

कभी जिसने हमारे खत, समंदर में बहाए थे,

सुना है आजकल मेरी गली में रोज आते हैं।

मुक्तक - होली है ...........




किसी के प्यार में हद से, गुजर जाओ की होली है,

गुलाले इश्क गालों पर, लगा जाओ की होली है।

किसीने द्वार पर आकर, तुम्हे दिल से सदा दी है।

ज़रा पाजेब छनकाती, निकल आओ की होली है।

@मुकेश पाण्डेय "जिगर"-अहमदाबाद

मुक्तक - दिल का वो एक कोना ..........





दिल का वो एक कोना, अब तक पड़ा है खाली,

पत्ते हैं झड गए सब, सूनी पड़ी है डाली,

मुमकिन नहीं है सारी, यादों को भूल जाना,

तुम बिन थी सूनी होली, सूनी रही दिवाली।

मुक्तक - जो ना माफी के काबिल हो........




जो ना माफी के काबिल हों, वो ऐसे काम करता है,

अनादर देश का अपने, वो खुल्लेआम करता है,

गुनाहों की लड़ी वो है, मगर महफूज रहता है,

पहन चोला वो सज्जन का यूँ कत्लेआम करता है।

मुक्तक- तू मेरे पास है लेकिन .......




तू मेरे पास है लेकिन न जाने क्यूँ ये दूरी है,

यहाँ बस मैं अकेला हूँ, भरी महफिल ये पूरी है,

मिलें हम तुम जरा खुलकर, तो सारे ख्वाब पूरे हों,

मैं तेरे बिन अधूरा हूँ, तू मेरे बिन अधूरी है।

मुक्तक- करो दिल से उसे गर याद......




करो दिल से उसे गर याद, सारे काम बन जाएँ,

नगर जिसके चरण कमलो से, तीरथ धाम बन जाएँ,

मिटा दें कंस या रावण का, जो अस्तित्व धरती से,

कभी वो कृष्ण बन जाएँ, कभी श्री राम बन जाएँ।

Saturday, May 2, 2020

ग़ज़ल



होते न वो जग में सफल, जो कर्म ही करते नही,
उनको न मिलती मंज़िलें, गर रात दिन चलते नही।

अपने सखा की उन्नती, हमको जलाए क्या भला,
हम दुश्मनों की शान-ओ,शौकत से भी जलते नही।

शमशीर के भी घाव को, भरता रहा है वक्त ये,
शब्दों के हों गर जख्म तो, मरहम से वो भरते नही।

दरिया छुपाकर दर्द का, मिलता रहा हँसकर सदा,
लेकिन “जिगर” रोता नही, आँसू कभी बहते नही।

अंदाज है उनका जुदा, उनकी अदा भी है अलग,
दिल से हमें वो चाहते, लब से मगर कहते नही।

पूछा किए उनका पता, हम हर गली के मोड पर,
सारे मुहल्ले ने कहा, अब वो यहाँ रहते नही।

पूरे भी होंगे ख्वाब सब, जिद्दी बनो मक्कम रहो,
जो सिर फिरे ना हो यहाँ, इतिहास वो रचते नही।

आजाद बिस्मिल या भगत, असफाक औ सुखदेव हों,
जो वीर होते हैं “जिगर”, वो मौत से डरते नही।

@ मुकेश पाण्डेय "जिगर" - अहमदाबाद


















ग़ज़ल



तुमने जलाए घर कई, दीपक जलाया मत करो,
दरिया हो तुम तो पाप का, गंगा नहाया मत करो।

गर चाहते हो चैन से, गुजरे ये सारी ज़िंदगी,
ईमान अपना बेचकर, दौलत कमाया मत करो।

तुमने बहाया है लहू, मासूम औ निर्दोष का,
संबंधियों की मौत पर, आँसू बहाया मत करो।

इंसानियत जिंदा रहे, जीते रहो जीने भी दो,
कस्दन किसी के जिस्म पर, खंजर चलाया मत करो।

मंजिल उसे मिलती नही, जो मील के पत्थर गिने,
ठहरे बिना चलते रहो, ये वक्त जाया मत करो।

तुमने दिये हैं जख्म ही, सौगात में सबको सदा,
अपने लिए मरहम की अब, आशा लगाया मत करो।
  
कोशिश करो लाखों “जिगर”, विजयी बनेगा सत्य ही,
झूठों की होगी जीत ये, सपना सजाया मत करो।

@ मुकेश पाण्डेय "जिगर"- अहमदाबाद





ग़ज़ल


वो आजकल ना जाने क्यों, परवाह करते हैं बहुत,

हमको नए खतरों से भी, आगाह करते हैं बहुत।

जिसके गमों की आंच ने, शायर बनाया है हमें,
वो भी हमारे शेर पर, अब वाह करते हैं बहुत।

हर दर, गली, कूचे में ही, भटका बहुत तेरे लिए,
तेरे शहर के लोग भी, गुमराह करते हैं बहुत।

सुनकर तेरा पैगाम ही, टूटा हूँ मैं तो बारहा,
इस दौर के इंसान भी, अफवाह करते हैं बहुत।

सुनता हूँ चारों ओर अब, चर्चा उसी का कूबकू,
तारीफ उसके हुस्न की, मद्दाह करते हैं बहुत।

जिनकी निगाहे शोख का, कायल जहां है आज भी,
उनसे मिलन की ही “जिगर”, हम चाह करते हैं बहुत।




@ मुकेश पाण्डेय "जिगर"- अहमदाबाद




ग़ज़ल



उजड़े हुए हर बाग में, अब गुल खिलाना चाहिए,
निर्जन बने हर गाँव को, फिर से बसाना चाहिए।

गर चाहता है आदमी, आजाद अपनी ज़िंदगी,
पहले उसे पिंजरे का हर, पंछी उड़ाना चाहिए।

मगरूर होकर के बहुत, सुख में गुजारा वक्त गर,
अब दु:ख अगर आया है तो, हँसकर बिताना चाहिए।

जो मुल्क के हर काम में, अवरोध बनते हैं सदा
ऐसे सभी गद्दारों को, जड़ से मिटाना चाहिए

इस पल दो पल के साथ को, जी भर के जीलो यार तुम,
जो भी हुए अनुभव बुरे, अब भूल जाना चाहिए।

वो बोलते हमसे नही, रूठे हुए है इस कदर
है दिल हमारा कह रहा, उनको मनाना चाहिए

भौतिक सुखों की दौड़ में अब थक गया हूँ मैं “जिगर”
सुख चैन के क्षण मिल सकें, ऐसा ठिकाना चाहिए।

@ मुकेश पाण्डेय "जिगर" - अहमदाबाद



ग़ज़ल


मुश्किलों में साथ दें वो, दोस्त ही मिलते नही हैं,
गर्दिशों में है सुदामा, कृष्ण जी मिलते नही हैं।

प्राण का बलिदान देकर, हो गया जग में अमर जो,
अब समर में कर्ण जैसे वीर भी मिलते नही हैं।
                 
हारते हैं रोज अर्जुन, ज़िंदगी की जंग में अब,
पार्थ को भी कृष्ण जैसे, सारथी मिलते नही हैं।

साथ रहना है  हमें तो, दिल का मिलना है जरूरी,
जो दिलों को जीत लें वो, आदमी मिलते नही हैं।

व्याकरण के ग्रंथ लिखकर, जो करें भाषा शुशोभित,
आज के इस दौर में वो, पाणिनी मिलते नही हैं।
       
जिस निगाहे शोख पर थे, हम हुए आसक्त यारों,
अब किसी कूचे में ऐसे, दिलनशी मिलते नही हैं।

बात वो ऐसी करें की, काट दे लंबा सफर जो,
अब किसी भी ट्रेन में वो, अजनबी मिलते नही हैं।

व्याधियों से ग्रस्त हैं सब, है “जिगर” कोई न औषध
ला सकें संजीवनी वो, मारुती मिलते नही हैं।

@ मुकेश पाण्डेय "जिगर"- अहमदाबाद